नक्सल आंदोलन: आज का सच
मानव  कल्याण के विपरीत निजी कल्याण के इन संगठित हत्यारों और  समाज विरोधियों को उग्रवादी या अतिवादी कहना भी उन्हें अलंकृत करना है। अब  इन पर सीधी शब्दावली का ही प्रयोग करना पड़ेगा। इन्हें जाहिर तौर पर  हत्यारे, समाजविरोधी या मानवताविरोधी करार देना पड़ेगा।
उपरोक्त के  आलोक में एक सवाल मानव अधिकार के तमाम कार्यकर्त्ताओं से किया जा सकता है  कि जिस तरह निरीह व निरपराध साधारण जनता को अलग-अलग देशों और प्रांतों में  मारा जा रहा है, यह क्या  मानव अधिकारों का हनन नहीं है?
छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के लिए  माकूल परिस्थितियां बनने-बनाने में जाने-अनजाने जिन्होंने सहयोग दिया, वे  उपकरण क्या थे? इस तरफ ध्यान देना जरूरी है। 1960 से पहले एकीकृत  मध्यप्रदेश में, खासकर छत्तीसगढ़ के इलाकों में, बमुश्किल एक या दो एनजीओ  कार्यरत थे। आज की तिथि में इनकी संख्या 150 से अधिक है। आधुनिक  अर्थशास्त्र और वैश्वीकरण के दबाव में एनजीओ  किसी भी विकासशील देश की अनिवार्यता बन गए है। इसी अनिवार्यता को सूंघ  लिया था तत्कालीन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने । तभी से  छत्तीसगढ़ में एनजीओ का प्रवेश धुआंधार होने लगा और फिर तो भाजपा शासन में  भी इन पर कोई बंधन नही रहा। एनजीओ के द्वारा कितने सामाजिक व राज्यस्तरीय  कल्याण के कार्य हुए, यह या तो सरकारी सूखे या अवास्तविक आंकड़े बताते हैं  या फिर जगह-जगह दिख रही  बदहाली स्वयं ही उसे बयान कर रही है। इन सबका ही नतीजा है नक्सलवादियों की  पैठ। बस्तर और सरगुजा में इसीलिए नक्सलवादियों ने अपना चारागाह ढंुढ़ लिया।
छत्तीसगढ़  के वनांचलों से जब से समतावादी शक्तियों को  हकाला गया, तभी से हत्यारे  नक्सलियों  को यहां पनाह मिली। इसके बाद परिस्थितियां बिगड़ती चली गई और  दोषारोपण के भोथरे हथियार से सलवा जुडूम जैसे स्वतःस्फूर्त आंदोलन पर  भड़ास निकालने की कोशिशें जारी हैं, जबकि दूसरी ओर हाल के दिनों की रिपोर्ट  है कि राजशाही से पूरी  तरह विमुख होते हुए नक्सलवादी संगठनों ने नेपाल  में लोकतंत्रिक संरचना में लौटने के लिए अपनी पूरी सहमति जता दी है, फिर  भारत में ऐसा क्यों नही हो सकता ?
दिल्ली से लेकर रायपुर (छत्तीसगढ़)  तक पीयूसीएल के बैनर तले मानवाधिकार के हिमायतियों ने डॉ. विनायक सेन की  गिरपतारी पर खूब जोर-शोर  से सवाल उठाए। आश्चर्यजनक तथ्य है कि देश की राजधानी दिल्ली और छत्तीसगढ़  की राजधानी रायपुर तक ही मानवाधिकार के दिग्गजों की यात्राएं होती रहीं,  लेकिन इन प्रवक्ताओं ने भूलकर भी नक्सलवादी गतिविधियों के केंद्र बस्तर के  घने जंगलों से विस्थापित हुए आदिवासियों की सुधि लेने की जहमत नहीं उठाई।  वे बस्तर के नागरिकों से भी नहीं मिले। उनके नुमाइंदे आदिवासी विस्थापितों  के शिविरों  में इस बात के लिए जाने को उत्सुक थे कि आदिवासियों की एकजुटता के रूप में  गठित सलवा जुडूम को कैसे गलत साबित किया जाए। यह तथ्य भी अपने आप में बहुत  बड़ा है कि पूरी दुनिया में अत्याचार-अविचार के खिलाफ पांच हजार से अधिक की  संख्या में कहीं किसी देश में आदिवासी स्वयं का एक संगठन तैयार कर नक्सली  हिंसा के खिलाफ इस तरह खड़े हुए हों, वह भी किसी राजनीतिक नेतृत्व की बैसाखी  पर नहीं। संभवतः  यही बात कुछ वामपंथी दलों को भी नागवार गुजर रही है कि इतना बड़ा आदिवासी  आंदोलन (सलवा जुडूम) उनके नेतृत्व का मोहताज क्यों नहीं है। यदि कांग्रेस  के महेंद्र कर्मा इस आंदोलन से जुड़े हुए है तो पार्टी के स्तर पर कतई नहीं  जुड़े, बल्कि एक आदिवासी नेता के रूप में वे अपनी जमीन के प्रति अपने  दायित्व के तहत ही जुड़े हुए हैं। इधर महेंद्र कर्मा सलवा जुडूम आंदोलन में  अपनी भागीदारी देने के  लिए सामने आए तो उधर कांग्रेस के ही पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी को लगा  कि जिस आदिवासी इलाके ने पिछले चुनाव में उन्हें बहुमत की सौगात नहीं  सौंपी, वह इलाका पार्टी के ही महेंद्र कर्मा को क्यों स्वीकार कर रहा है।  यही चिढ़ यदि विरोध का आधार बनती है तो कांग्रेस के आलाकमान को सलवा जुडूम  के मसले पर मुंह खोलने में हिचकिचाहट होने लगती है और आलाकमान गंधारी की  भूमिका मे उतरकर पट्ठी  बांधे निश्चिंत हो जाता है। इसका प्रतिफल है कि छत्तीसगढ़ कांग्रेस पूरी  तरह ऊहापोह की स्थिति में है। अधिकांश कांग्रेसी नेताओं को भीतरी तौर पर  आदिवासियों की एकजुटता (सलवा जुडूम) जायज लगती है, पर बाहरी तौर पर वे भी  अपने आलाकमान की तर्ज पर चुप्पी साध लेते हैं।
यह तथ्य भी उल्लेखनीय  है कि छत्तीसगढ़ की वर्तमान सरकार भाजपा की है और वामपंथियों को इसलिए भी  मानवाधिकार की आड़ में  सलवा जुडूम के विरोध में वक्तव्य देने पड़ रहे हैं, क्योंकि उन्हें यह बात  रास नहीं आ रही है कि भाजपा सरकार नक्सली हिंसा के द्वारा विस्थापित  आदिवासी श्वििरों की देख-रेख क्यों कर रही है? यहीं पर स्वच्छ मानवतावादी  दृष्टिकोण से एक सवाल उठाया जा सकता है कि पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम में  जमीन बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता जब विस्थापित होते हैं तो वामपंथी सरकार  वहां शिविर की  व्यवस्था करती है और तब उनका दृष्टिकोण अलग हो जाता है,जबकि सच्चाई यह है  कि छत्तीसगढ़ में वर्तमान में कोई भी सरकार होती तो नक्सली हिंसा के चलते  विस्थापित हुए आदिवासियों को सरकार को संरक्षण देना ही पड़ता, जमीन से जुड़ा  आंदोलन हो या नक्सली हिंसा का प्रतिफलन।
इतिहास के परिप्रेक्ष्य में और  वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए यदि राजनीतिक पार्टियां छत्तीसगढ़ की ओर  देखें तो  चित्र बहुत स्पष्ट हो जाता है कि देश के दूसरे हिस्सों की अपेक्षा  छत्तीसगढ़ में नक्सली हिंसा का चरित्र लगभग डाकूओं और विकृत मस्तिष्क के  हत्यारों की तरह हो गया है। वे आदिवासियों को आदिवासियों की ही जमीन से  विस्थापित करने के लिए उतावले हैं। करीब-करीब रंगदारी टैक्स की तरह ही वे  वसूली कर रहे हैं। अपुष्ट समाचार के अनुसार इस रंगदारी टैक्स की परिधि में  अब थाने भी गाहे-बगाहे आने  लगे हैं। अभी की वारदातों में सबका ध्यान बस्तर पर ही केंद्रित है, लेकिन  अबूझमाढ़ का वह हिस्सा जहां घने जंगलों में सूरज की रोशनी भी प्रवेश नहीं कर  पा रही है, सुरक्षा बलों की तो बात ही दूर है, वहां नक्सलियों ने सुरक्षित  फ्री-जोन बना लिया है। वे अपनी अबूझमाढ़ी स्वतंत्रता को किसी भी कीमत पर  खोना नहीं चाहते, लेकिन जब से नक्सलियों ने अपनी वारदात तेज की है, तब से  पुलिस बलों के आक्रमण  और जन चेतना के चलते वे एक हिंसक पशु की प्रवृत्तियों में लौट आए हैं। अब  निरीह आदिवासियों की हत्या उनके लिए कोई विवेक का प्रश्न नहीं कर गया है।  येन-केन-प्रकारेण वे अपने पैसे की वसूली जारी रखकर देश भर की नक्सलवादी  ताकतों को बुलावा दे रहे हैं कि छत्तीसगढ़ को उनका चारागाह बनाए रखने में  अपना सहयोग दें। इस तरह महाराष्ट्र,झारखंड,उड़ीसा और आंध्र के नक्सली  अपने-अपने प्रदेशों में  अपनी वारदातों को कम कर छत्तीसगढ़ में पहले से रह रहे नक्सलियों की मदद  करने पहुंच रहे है। उनका एकमात्र लक्ष्य है सुरक्षा बलों और पुलिस को पूरी  ताकत से यह जतलाना कि छत्तीसगढ़ का आदिवासी इलाका उनके कब्जे में है और  रहेगा।
 डा.सोमनाथ यादव, बिलासपुर (छ.ग.)